
बिहार की राजनीति में प्रशांत किशोर की ‘जन सुराज’ यात्रा: चुनावी रणनीतिकार से ‘जन-नेता’ बनने का सफर और चुनौतियां
चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने ‘जन सुराज’ के माध्यम से बिहार की राजनीति में एक नई लकीर खींचने का दावा किया है। जानें, उनकी 3500 किमी की यात्रा का सार, उनके वादे, चुनौतियां और 2025 के चुनावों पर उनका संभावित प्रभाव।
प्रस्तावना: बिहार की बदहाली और एक नए विकल्प की तलाश
पिछले कुछ वर्षों से, भारतीय राजनीति में एक नाम लगातार सुर्खियों में रहा है – प्रशांत किशोर, जिन्हें ‘पीके’ के नाम से भी जाना जाता है। एक दशक से भी अधिक समय तक, उन्होंने पर्दे के पीछे रहकर कई प्रमुख राजनीतिक दिग्गजों और दलों के लिए चुनावी रणनीतियां तैयार कीं। वर्ष 2021 में, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु विधानसभा चुनावों में तृणमूल कांग्रेस और डीएमके की जीत के बाद, उन्होंने चुनावी रणनीतिकार के रूप में अपने कार्य से संन्यास लेने की घोषणा कर दी । उन्होंने कहा था कि अब वह कुछ और करना चाहते हैं । इसके बाद, उन्होंने ‘जन सुराज’ नामक एक अभियान के साथ बिहार की राजनीति में सीधे प्रवेश किया ।
प्रशांत किशोर की यह राजनीतिक यात्रा एक ऐसे समय में शुरू हुई है, जब बिहार दशकों से कुशासन, गरीबी और पलायन की समस्याओं से जूझ रहा है । 40-45 साल तक कांग्रेस, 15 साल लालू प्रसाद और 20 साल नीतीश कुमार का शासन रहने के बावजूद राज्य की बदहाली दूर नहीं हुई । बिहार की इस पृष्ठभूमि ने ‘जन सुराज’ जैसे एक नए राजनीतिक प्रयास के लिए जमीन तैयार की है, जो पारंपरिक राजनीति से हटकर एक नया विकल्प पेश करने का दावा करता है। प्रशांत किशोर का यह कदम केवल एक करियर परिवर्तन नहीं है, बल्कि एक सचेत रणनीतिक बदलाव है, जिसका उद्देश्य स्वयं को सिर्फ ‘राजा बनाने वाले’ (किंगमेकर) की छवि से बाहर निकालकर एक ‘जन-नेता’ के रूप में स्थापित करना है। वह अब सीधे जनता के प्रति जवाबदेह हैं, और उनकी सफलता या असफलता का सीधा असर उनकी राजनीतिक साख पर पड़ेगा। इस लेख का उद्देश्य प्रशांत किशोर की इस पूरी यात्रा, उनकी विचारधारा, वादों, चुनौतियों और 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव पर उनके संभावित प्रभाव का विस्तृत विश्लेषण करना है।
पहला अध्याय: चुनावी रणनीतिकार से राजनेता का उदय
पर्दे के पीछे के मास्टरमाइंड: ‘चाय पर चर्चा’ से ‘जन सुराज’ तक
प्रशांत किशोर का राजनीतिक सफर बेहद अनूठा रहा है। राजनीति में आने से पहले, उन्होंने लगभग आठ वर्षों तक संयुक्त राष्ट्र (यूएन) के सहयोग से लोक स्वास्थ्य (पब्लिक हेल्थ) के क्षेत्र में काम किया । 2011 में, उन्होंने संयुक्त राष्ट्र की नौकरी छोड़कर चुनावी रणनीतिकार के रूप में एक नए करियर की शुरुआत की । उन्हें व्यापक पहचान तब मिली जब उन्होंने 2014 के भारतीय आम चुनाव के लिए ‘सिटिज़न्स फॉर अकाउंटेबल गवर्नेंस (CAG)’ नामक एक चुनावी अभियान समूह की स्थापना की । इस समूह ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए अभिनव विपणन और प्रचार अभियान तैयार किए, जिनमें सबसे प्रमुख ‘चाय पर चर्चा’ था । इस अभियान को 2014 में भाजपा की पूर्ण बहुमत की जीत में महत्वपूर्ण माना गया।
2014 की सफलता के बाद, किशोर ने कई प्रमुख भारतीय राजनीतिक दलों के लिए काम किया । 2015 में, उन्होंने बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले महागठबंधन को जीत दिलाने में मदद की। इसके बाद, उन्होंने 2017 में पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह के लिए और 2019 में आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस के लिए सफल अभियान चलाए। 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी और 2021 में पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और तमिलनाडु में डीएमके की जीत में भी उनकी रणनीतियों की अहम भूमिका रही ।
दशकों तक दूसरों के लिए रणनीति बनाने के बाद, प्रशांत किशोर ने 2 मई 2021 को चुनावी रणनीति के पेशे से विदा लेने की घोषणा कर दी। उन्होंने कहा कि वह इस क्षेत्र में अब नहीं रहना चाहते और जीवन में कुछ और करना चाहते हैं । इस ‘संन्यास’ के बाद, उन्होंने बिहार में एक नई पारी की शुरुआत की। उनकी राजनीतिक यात्रा एक पेशेवर रणनीतिकार के रूप में अपनी सफलताओं पर आधारित है, लेकिन यही इतिहास उनके लिए एक दोधारी तलवार भी है। उनका विभिन्न और विरोधाभासी विचारधाराओं वाले दलों के लिए काम करना, जैसे कि भाजपा, कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस, उन्हें एक चतुर रणनीतिकार के रूप में स्थापित करता है। हालांकि, यह उनके आलोचकों को उन पर अवसरवादी होने का आरोप लगाने का मौका भी देता है। यह स्थिति उनकी विश्वसनीयता पर सवाल उठा सकती है और “भाजपा की बी-टीम” जैसे आरोपों का आधार बन सकती है। उनका यह प्रयास उनकी छवि को एक “राजनीतिक सलाहकार” से “स्थायी राजनेता” में बदलने की कोशिश है, जो एक बड़ा जोखिम है।
सारणी: प्रशांत किशोर: चुनावी रणनीतिकार से राजनेता
दूसरा अध्याय: ‘जन सुराज’ अभियान: एक नया राजनीतिक मॉडल
‘जनता के स्वराज’ का विज़न और 3500 किलोमीटर की पदयात्रा
प्रशांत किशोर का ‘जन सुराज’ केवल एक राजनीतिक दल नहीं, बल्कि एक व्यापक सामाजिक-राजनीतिक अभियान है। इसका मुख्य उद्देश्य राजनीति में उन ‘सही लोगों’ को लाना है, जिनका वर्तमान और भविष्य बिहार की बदहाली से जुड़ा है, जिनमें यहां की समस्याओं को सुलझाने का जज्बा है । यह व्यवस्था परिवर्तन के माध्यम से एक नया, विकासशील और अग्रसर बिहार बनाने का प्रयास है ।
इस अभियान की सबसे बड़ी पहचान ‘बिहार बदलाव यात्रा’ है। प्रशांत किशोर ने अक्टूबर 2022 में महात्मा गांधी की जयंती पर इस पदयात्रा की शुरुआत की, जिसका लक्ष्य बिहार के हर गांव तक पहुंचना था। उन्होंने करीब 5000 किलोमीटर से ज्यादा की पदयात्रा की है और 5500 से अधिक गांवों का दौरा किया है । यह यात्रा जनता से सीधे संवाद स्थापित करने और उनकी समस्याओं को गहराई से समझने का एक प्रयास है । किशोर का मानना है कि इस सीधे संवाद से जो राय बन कर आती है, वही चुनाव जीतने का मूल आधार है ।
‘जन सुराज’ का संगठनात्मक मॉडल बिहार की पारंपरिक राजनीति के बिल्कुल विपरीत है। यह किसी एक व्यक्ति या परिवार का दल नहीं है, बल्कि ‘संस्थापक सदस्यों’ का एक सामूहिक प्रयास है। प्रशांत किशोर खुद को इस दल का सूत्रधार बताते हैं, नेता नहीं । उनका लक्ष्य समाज के हर वर्ग से काबिल लोगों को ढूंढकर बाहर निकालना और उन्हें राजनीति में लाना है । इस मॉडल का उद्देश्य किसी एक परिवार या व्यक्ति की जगह सामूहिक नेतृत्व स्थापित करना है, जहां सभी विषयों पर निर्णय का अधिकार किसी एक व्यक्ति या परिवार का न होकर, सभी लोगों का हो । इस मॉडल के तहत, ‘जन सुराज’ 2025 बिहार विधानसभा चुनाव में सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ने की योजना बना रहा है ।
‘जन सुराज’ का यह मॉडल एक जोखिम भरा आदर्शवाद है। यह बिहार की दशकों पुरानी परिवार-आधारित और जाति-केंद्रित राजनीति का सीधा विरोध है। यह एक ऐसा आदर्शवादी मॉडल है जो मतदाताओं को एक ‘विकल्प’ प्रदान करने का दावा करता है। हालांकि, व्यावहारिक रूप से, एक मजबूत केंद्रीय नेतृत्व और स्थापित वोट बैंक के बिना एक नए दल के लिए चुनाव लड़ना और संगठन खड़ा करना बेहद चुनौतीपूर्ण हो सकता है। पारंपरिक दलों के पास दशकों का अनुभव और स्थापित मतदाता वफादारी है, जबकि ‘जन सुराज’ के पास संगठनात्मक ढांचे और मतदाता वफादारी की कमी है, जिसे आलोचकों ने सबसे बड़ी बाधा बताया है । यदि यह मॉडल सफल होता है, तो यह भारतीय राजनीति में एक नई प्रवृत्ति की शुरुआत कर सकता है। लेकिन यदि यह विफल होता है, तो यह इस बात को साबित कर देगा कि भारतीय राजनीति अभी भी जाति, परिवार और करिश्माई नेतृत्व के इर्द-गिर्द घूमती है।
तीसरा अध्याय: वादों की धार और जनता से सीधा संवाद
शिक्षा, रोजगार और पेंशन: ‘नजरिया बदलेगा, बिहार बदलेगा’
प्रशांत किशोर की राजनीति का केंद्रबिंदु लोक-लुभावन वादे और जनता से सीधा संवाद है। उनकी ‘बिहार बदलाव यात्रा’ के दौरान उन्होंने कई प्रमुख वादे किए हैं, जो सीधे तौर पर आम लोगों के जीवन से जुड़े हैं।
- रोजगार और पलायन: उन्होंने यह वादा किया है कि छठ पर्व के बाद बिहार से युवाओं का पलायन पूरी तरह से बंद हो जाएगा । उन्होंने कहा कि करीब 50 लाख युवा जो बाहर 10,000 से 12,000 रुपये की मजदूरी पर काम कर रहे हैं, उन्हें वापस लाया जाएगा और उन्हें राज्य में ही समान स्तर की नौकरियां दी जाएंगी ।
- मासिक पेंशन: प्रशांत किशोर ने दिसंबर 2025 से 60 वर्ष से अधिक आयु के हर व्यक्ति को 2000 रुपये की मासिक पेंशन देने का भी वादा किया है ।
- शिक्षा में सुधार: उनका एक बड़ा वादा शिक्षा से संबंधित है। उन्होंने कहा है कि जब तक सरकारी स्कूलों में सुधार नहीं हो जाता, तब तक 15 साल से कम उम्र के बच्चे सरकारी खर्च पर निजी स्कूलों में पढ़ सकेंगे ।
- शराबबंदी पर मुखरता: प्रशांत किशोर बिहार में शराबबंदी का मुखर विरोध करते हैं। उन्होंने यह वादा किया है कि ‘जन सुराज’ की सरकार बनी तो शराबबंदी को एक घंटे के अंदर खत्म कर दिया जाएगा ।
प्रशांत किशोर की भाषण शैली भी विशिष्ट है। वह लोगों से सीधे संवाद करते हैं, उन्हें अपनी समस्याओं का अहसास कराते हैं और उनसे अपने बच्चों के भविष्य के लिए वोट करने की अपील करते हैं । वह भीड़ से हाथ उठवाकर संकल्प लेते हैं कि वे लालू, नीतीश या मोदी जैसे नेताओं के चेहरे पर वोट नहीं देंगे, बल्कि अपने बच्चों के भविष्य को ध्यान में रखकर मतदान करेंगे । उनकी यह शैली अरविंद केजरीवाल के शुरुआती दौर की याद दिलाती है । केजरीवाल ने दिल्ली में बिजली, पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करके चुनाव जीता, और प्रशांत किशोर भी बिहार में रोजगार, शिक्षा और पलायन जैसे मुद्दों पर जोर दे रहे हैं। यह पारंपरिक जाति-आधारित राजनीति से हटकर ‘विकास-आधारित’ राजनीति की ओर एक बदलाव का प्रयास है।
हालांकि, यह रणनीति कितनी सफल होगी, यह एक बड़ा सवाल है। दिल्ली का मतदाता शहरी और अपेक्षाकृत अधिक शिक्षित है, जबकि बिहार की विशाल ग्रामीण आबादी अभी भी जाति और धर्म के समीकरणों से गहराई से प्रभावित है । प्रशांत किशोर का यह प्रयास एक ऐसे सामाजिक-राजनीतिक प्रयोग के समान है जिसका परिणाम अनिश्चित है। यदि वह इन मुद्दों पर लोगों को एकजुट कर पाते हैं, तो वह बिहार की राजनीति को एक नई दिशा दे सकते हैं।
चौथा अध्याय: ‘बी-टीम’ का आरोप और बिहार की जटिल राजनीति
जाति की जंजीरें और ‘किंगमेकर’ की छवि का संकट
प्रशांत किशोर की ‘जन सुराज’ पार्टी के सामने सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक ‘भाजपा की बी-टीम’ होने का आरोप है। राष्ट्रीय जनता दल (राजद) की सांसद मीसा भारती सहित कई आलोचकों ने प्रशांत किशोर पर यह आरोप लगाया है । उनका मानना है कि ‘जन सुराज’ का गठन भाजपा को मदद करने और विपक्ष के वोटों को बांटने के लिए किया गया है ।
इन आरोपों पर प्रशांत किशोर की प्रतिक्रिया तीखी है। वह कहते हैं कि जिसे चुनाव नहीं लड़ना है वह तो हमलावर होगा, लेकिन जिसे चुनाव लड़ना है, उसे अपनी जमीन खिसकती हुई दिख रही है और इसीलिए वह घबराया हुआ है । उन्होंने यह भी कहा कि जब उन्होंने शुरुआत की थी, तब लोग उन्हें भाजपा की बी-टीम कहते थे, और अब भाजपा वाले उन्हें इंडिया गठबंधन की बी-टीम कहते हैं, जिससे यह स्पष्ट होता है कि दोनों ही उनके बढ़ते प्रभाव से चिंतित हैं ।
प्रशांत किशोर बिहार की जाति-आधारित राजनीति को भी चुनौती दे रहे हैं। वह कहते हैं कि बिहार में लोग जाति से ऊपर उठकर वोट देते हैं, जैसा कि नरेंद्र मोदी को मिलने वाले वोटों से साबित होता है, जिनकी बिहार में अपनी जाति का कोई बड़ा वोट बैंक नहीं है । हालांकि, आलोचकों का मानना है कि बिहार जैसे राज्य में जातीय समीकरण राजनीति की रीढ़ हैं और ‘जन सुराज’ के लिए यह एक बड़ी चुनौती है ।
‘जन सुराज’ के लिए शुरुआती चुनाव महत्वपूर्ण रहे हैं। उपचुनावों में पार्टी को ‘वोट-कटवा’ के रूप में देखा गया, जो मुख्य पार्टियों के लिए खतरा बन सकती है, लेकिन खुद सत्ता तक पहुंचने की संभावना कम है । हालांकि, प्रशांत किशोर ने एमएलसी उपचुनाव में ‘जन सुराज’ को मिले 22% वोट का हवाला देते हुए अपनी ताकत का दावा किया है, जबकि राजद तीसरे और एनडीए चौथे नंबर पर रहा । यह दर्शाता है कि उनके भाषणों में भले ही भीड़ जुटती हो , लेकिन वह वोट में पूरी तरह से तब्दील नहीं हो पा रही है। यह उनकी संगठनात्मक कमजोरी का सीधा परिणाम हो सकता है । ‘वोट-कटवा’ की यह छवि उनकी विश्वसनीयता को गंभीर नुकसान पहुंचाती है। यदि मतदाता यह मान लेते हैं कि ‘जन सुराज’ जीत नहीं सकता, तो वे अपने वोट को बर्बाद करने के बजाय किसी स्थापित दल को ही वोट देना पसंद करेंगे।
पाँचवाँ अध्याय: क्या प्रशांत किशोर बन पाएंगे ‘किंग’ या बनेंगे ‘किंगमेकर’?
2025 बिहार विधानसभा चुनाव: संभावनाएँ और चुनौतियाँ
प्रशांत किशोर की राजनीतिक यात्रा का सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या वह 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव में ‘किंग’ बन पाएंगे, या फिर ‘किंगमेकर’ की भूमिका तक ही सीमित रहेंगे? एक हालिया सर्वे में, प्रशांत किशोर मुख्यमंत्री की पसंद के मामले में तीसरे नंबर पर रहे, जिन्हें 15% लोगों ने चुना । यह एक नए नेता के लिए सम्मानजनक संख्या है, लेकिन यह नीतीश कुमार (18%) और तेजस्वी यादव (41%) से काफी कम है ।
उनकी ब्राह्मण पहचान भी एक ‘दोहरी तलवार’ है, क्योंकि बिहार में 1989 के बाद कोई ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं बना है। हालांकि, प्रशांत किशोर ने खुद को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया है और उनकी पार्टी किसी खास जाति पर केंद्रित नहीं है । आलोचकों का मानना है कि वह चुनाव नहीं जीत पाएंगे, लेकिन त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में ‘किंगमेकर’ की भूमिका निभा सकते हैं । प्रशांत किशोर खुद को ‘किंगमेकर’ कहने से इनकार करते हैं और अपने जीवन का लक्ष्य बिहार को विकसित राज्य बनाना बताते हैं ।
उनकी लोकप्रियता और चुनावी सफलता के बीच एक महत्वपूर्ण खाई है। लोग उनके विचारों को पसंद कर सकते हैं और उन्हें एक वैकल्पिक नेता के रूप में देख सकते हैं, लेकिन जब वोट देने की बात आती है, तो वे पारंपरिक दलों के साथ रहते हैं। यह ‘चुनाव जीतने’ और ‘समाज को समझाने’ के बीच की खाई है, जिसका उल्लेख प्रशांत किशोर खुद करते हैं । उनकी सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि क्या वह अपनी व्यक्तिगत लोकप्रियता को एक मजबूत जमीनी संगठन और ऐसे वोट बैंक में बदल पाते हैं जो पारंपरिक जातिगत समीकरणों को तोड़ सके।
सारणी: जन सुराज के वादे बनाम बिहार की पारंपरिक राजनीति
मुद्दा | जन सुराज का वादा | पारंपरिक दलों की स्थिति/आलोचना |
रोजगार | युवाओं को राज्य में ही 10-12 हजार रुपये की नौकरी | तेजस्वी यादव 5 वर्ष में 1 करोड़ नौकरी देने का वादा करते हैं, लेकिन प्रशांत किशोर के अनुसार उनकी सरकार होने पर ऐसा क्यों नहीं हुआ |
पेंशन | 60 वर्ष से अधिक उम्र के लिए ₹2000 मासिक पेंशन | अन्य दलों द्वारा इस तरह का कोई ठोस योजनाबद्ध वादा नहीं। |
शिक्षा | 15 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए सरकारी खर्च पर निजी स्कूलों में पढ़ाई | सरकारी स्कूलों की बदहाली को लेकर पारंपरिक दलों पर आरोप लगते हैं |
पलायन | छठ पर्व के बाद बिहार से युवाओं का पलायन पूरी तरह बंद हो जाएगा | पारंपरिक दल इस समस्या पर कोई ठोस योजना नहीं ला पाए हैं |
शराबबंदी | सरकार बनने के एक घंटे के अंदर शराबबंदी को खत्म करने का वादा | तेजस्वी यादव भी बहुमत की राय पर शराबबंदी हटाने के पक्ष में हैं |
निष्कर्ष: क्या जन सुराज बिहार की राजनीति का भविष्य है?
प्रशांत किशोर का ‘जन सुराज’ बिहार की राजनीति में एक महत्वपूर्ण प्रयोग है। उन्होंने विकास, शिक्षा और रोजगार जैसे मुद्दों को जाति और धर्म की राजनीति से ऊपर लाने का प्रयास किया है। उनकी लंबी पदयात्रा और जनता से सीधा संवाद एक सकारात्मक पहल है। उनका प्रयास भारतीय राजनीति में एक व्यापक प्रवृत्ति का सूक्ष्म रूप है: ‘ब्रांडेड राजनेता’ का उदय। प्रशांत किशोर ने पहले नेताओं के लिए ‘ब्रांड’ बनाए, और अब वह खुद को एक ‘ब्रांड’ के रूप में पेश कर रहे हैं – ‘प्रशांत किशोर’ (पीके) ब्रांड। यह ब्रांड पारंपरिक राजनीति के मूल्यों को नकारता है और इसके बजाय व्यक्तिगत योग्यता, विकास और जवाबदेही पर जोर देता है।
‘जन सुराज’ का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि क्या वह अपनी व्यक्तिगत अपील को एक संगठित शक्ति में बदल सकते हैं, क्या उनकी पार्टी ‘वोट-कटवा’ की छवि से बाहर निकलकर एक निर्णायक ताकत बन सकती है, और सबसे महत्वपूर्ण, क्या बिहार की जनता जातिगत पहचान को छोड़कर उनके विकास के एजेंडे को अपनाती है। 2025 के विधानसभा चुनाव से यह तय होगा कि प्रशांत किशोर का यह प्रयास केवल एक आदर्शवादी प्रयोग बनकर रह जाएगा, या फिर यह बिहार की राजनीति को एक नई दिशा देगा।